न मैं हिन्दू होता ,
न तू मुसलमाँ होता ।
दरम्यां न फिर हमारे,
फिर फासला होता।।
न कहीं मंदिर गिरता,
न मस्जिद कोई ढहती।
न कहीं दंगे ही होते, न जलजला होता॥
न होती नफरत दिलों में,मेरे
और तुम्हारे।
दोस्ती और अमन का बस सिलसिला होता॥
बंधी होती एक जिल्द में,
गीता औ’
कुरान भी।
सिमटा हुआ न फिर हमारा,
यूं दायरा होता।।
इंसान हैं, इंसान बनकर ही सभी रहते यहाँ।
टूटती दीवारे-मजहब,
तो कितना भला होता॥
----- प्रदीप बहुगुणा ' दर्पण '
3 comments:
बहुत सुन्दर
आपका कहना बिलकुल सही है पर क्या ऐसा संभव हुआ है इतने सालों में ... राजनीति या कुछ और ...
पर काश कोई धर्म ही न होता इंसानियत के अलावा ...
आप सबका बहुत बहुत आभार॥
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