Sunday, November 12, 2017

तो कितना भला होता

न मैं हिन्दू होता , न तू मुसलमाँ होता ।
दरम्यां न फिर हमारे, फिर फासला होता।।

न कहीं मंदिर गिरता, न मस्जिद कोई ढहती।
न कहीं दंगे ही  होते,  न जलजला होता॥

न होती नफरत दिलों में,मेरे और तुम्हारे।
दोस्ती और अमन का बस सिलसिला होता॥

बंधी होती एक जिल्द में, गीता औ कुरान भी।
सिमटा हुआ न फिर हमारा, यूं  दायरा होता।।

इंसान हैं,  इंसान बनकर ही सभी रहते यहाँ।

टूटती दीवारे-मजहब, तो कितना भला होता॥
                    ----- प्रदीप बहुगुणा ' दर्पण '

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर

दिगम्बर नासवा said...

आपका कहना बिलकुल सही है पर क्या ऐसा संभव हुआ है इतने सालों में ... राजनीति या कुछ और ...
पर काश कोई धर्म ही न होता इंसानियत के अलावा ...

Pradeep Bahuguna Darpan said...

आप सबका बहुत बहुत आभार॥