Friday, August 25, 2017

विज्ञान की जय



     
 आज अपने काव्य में,विज्ञान की जय बोलता हूँ,
चिर पुरातन नित्य नूतन ज्ञान की जय बोलता हूँ।।

     हैं कहाँ से प्राणी आये,और मनुज आया कहाँ से।
मूल सबका एक समझो, जन्मे हैं सब कोशिका से।।
कोई जल में तैरता है, कोई दौड़े इस धरा पर।
कोई पंख अपने फैलाये, है विचरता आसमां पर।।
जन्म और मृत्यु के बंधन अनखुले मैं खोलता हूँ।
चिर पुरातन नित्य नूतन................................... । 

देखकर पक्षी को उड़ता, मन में उठी थी लालसा।
सोच बैठा तब मनुज कि, मैं भी छू लूँ आसमां॥
फिर सफर जारी हुआ, गुब्बारे से वायुयान तक।
और अन्तरिक्ष यान एक दिन, जा पहुँचा चाँद तक॥
आज इन सबके सहारे ,धरती-गगन को जोड़ता हूँ।
चिर पुरातन नित्य नूतन................................... ।

टेलीविज़न पर दीखते हैं, दृश्य हर एक छोर के।
और सुनाता रेडियो भी, समाचार चारों और के॥
कितना हुआ है बात करना, आसान टेलीफोन से।
भेज लो ई-मेल भी अब, हर दिशा-हर कोण से॥
दूरियों की सब दीवारें, विज्ञान से मैं तोड़ता हूँ।
चिर पुरातन नित्य नूतन................................... ।

विज्ञान के कारण हमारा, कितना सरल जीवन हुआ।
विज्ञान के बल पर यहाँ, कितना नया सृजन हुआ॥
है मनुज प्रगति के पथ पर, ये देन है विज्ञान की ।
इसलिए जय बोलता हूँ, विज्ञान के अभियान की॥
विज्ञान से जीवन में अपने, आनंद रस मैं घोलता हूँ।
                       चिर पुरातन नित्य नूतन........................... ।         



                                        --- प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'