किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
रोशनी तो हो गई अंधेरों में जाकर।
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।।
किसी को किसी की खबर ही नहीं है।
जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।
ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।
हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।
लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।
एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।
चिताएं जली हैं खुद रही हैं कब्रें।
मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।
परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता हूं ।
मैं क्यों देखता हूं ,किधर देखता हूँ।।
---–- प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
रोशनी तो हो गई अंधेरों में जाकर।
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।।
किसी को किसी की खबर ही नहीं है।
जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।
ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।
हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।
लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।
एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।
चिताएं जली हैं खुद रही हैं कब्रें।
मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।
परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता हूं ।
मैं क्यों देखता हूं ,किधर देखता हूँ।।
---–- प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'