Saturday, November 4, 2017

बदलते गाँव

“भारत गांवों का देश है, भारत गाँव में बसता है। - आज से सात दशक पूर्व देश की आजादी के समय यह बात अक्षरश: सत्य थी। इसी आधार पर महात्मा गांधी, बिनोबा भावे, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुषों ने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी। आत्मनिर्भर व समृद्ध गाँव भारत की पहचान हुआ करते थे। सुख-सुविधाएं भले ही कम थी, लेकिन अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए गावों को शहरों का मुंह नहीं ताकना पड़ता था। आजादी के बाद सात दशकों की कालयात्रा में भारत का स्वरूप बदला है। गौरतलब है कि स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना वर्ष 1951 में हुई थी, जिसके अनुसार भारत में ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत 83 था, जबकि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यह प्रतिशत घटकर 68.8 रह गया है। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में बसने वाला भारत अब शहरों का रूख करने लगा है।
        आजादी के सत्तर सालों में गावों की तसवीर बदल चुकी है। कुछ सकारात्मक परिवर्तन हुए है, तो कुछ नकारात्मक भी। गांवों ने भी विकास की दौड़ में कदमताल करते हुए अपना स्वरूप बदला है। यदि मैदानी क्षेत्रों के गांवों की बात करें तो बिजली,पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं आज गावों में भी उपलब्ध हैं। किसान उन्नत कृषि तकनीकों एवं यंत्रों का उपयोग कर अधिक उत्पादन कर रहे हैं। मनोरंजन के साधन सर्वसुलभ हो गए हैं। यातायात के लिए लोगों के पास व्यक्तिगत वाहन हैं। कुछ वर्षों पहले तक जहां  लोग पोस्टमैन की राह ताकते रहते थे, वहीं आज एक ही घर में कई मोबाईल हैं। चिट्ठी-पत्री तो बीते जमाने की बात हो गई है। गाँव के किसी एक-आध घर में रेडियो हुआ करता था, जहां लोग समाचार सुनने व मनोरंजन के लिए एकत्रित होते थे, किन्तु आज हर घर में टेलीविज़न है। गांवों की चौपालें आबाद हुआ करती थी। घर-घर में नल नहीं थे, तो गांवों के पनघटों पर भी रौनक हुआ करती थी। आज न तो वे पनघट हैं और न ही वो चौपालें। अपनी सरलता व सामाजिकता के लिए पहचाने जाने वाले ग्रामीण लोग भी आत्मकेंद्रित होने लगे हैं। विकास के नाम पर भौतिक सुख-सुविधाओं में तो वृद्धि हुई, किन्तु गावों ने अपनी पहचान भी खो दी है। शारीरिक श्रम का महत्व कम होने लगा है, जिसके कारण लोगों ने खेती-किसानी, पशुपालन, कपड़ा बुनने, बढ़ईगिरी,लोहारी जैसे परंपरागत व्यवसायों से किनारा कर लिया है। यही कारण है कि जो गाँव कई मामलों में आत्मनिर्भर हुआ करते थे,वे आज छोटी-छोटी चीजों के लिए भी दुकानों पर निर्भर हो गए हैं।
        दूसरी ओर पर्वतीय गावों के संदर्भ में विचार करें तो एक अलग ही तसवीर नजर आती है। आजादी के बाद से अब तक पहाड़ी गावों में सड़क व बिजली जैसी सुविधाओं में वृद्धि तो हुई है, लेकिन अभी भी कई गावों तक पहुँचने के लिए दुर्गम पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना पड़ता है। विद्युतीकरण का दायरा भी  बढ़ा है,किन्तु अभी भी कई गाँव अंधकार के साये में हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं का नितांत अभाव है। इन सब समस्याओं के चलते पलायन की दर बढ़ी है। आज से साठ-सत्तर पहले जो गाँव आबाद हुआ करते थे, आज वो खाली हो गए हैं। पलायन का विद्रूप यह है कि पहाड़ों में ग्रामीण जनसंख्या के नाम पर बुजुर्ग लोग ज्यादा नजर आते हैं। अच्छी शिक्षा, रोजगार व सुविधाओं की तलाश में युवा वर्ग शहरों की और दौड़ रहा है। गांवों के जिन खेतों में कभी फसलें लहलहाया करती थी, आज वो बंजर पड़े हैं, क्योंकि कोई खेती करने वाला ही नहीं है। जहां दूध- घी की भरमार हुआ करती थी, वहीं आज शहर से आए दूध की थैली या डिब्बे दिखाई देते हैं। कुछ दशक पहले की बात करें तो  गांवों में सुविधाएं आज की तुलना में भले ही कम थी, लेकिन लोग आत्मनिर्भर थे। अनाज, दालें, मिर्च,मसाले, दूध-घी सब पर्याप्त मात्रा में उत्पादित होता था। लोग कभी-कभार ही किसी विशेष सामग्री को क्रय करने के लिए शहर आते थे। लोहार, बढ़ई, राज मिस्त्री जैसे सभी कारीगर गाँव में ही मौजूद थे। अपनी आवश्यकताओं  के लिए लोग शहरों पर नहीं बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर थे। मिल-जुलकर कार्य करने से लोगों के मन में परस्पर समन्वय और सामाजिकता की भावना थी। लोग एक-दूसरे के सुख –दुख में सहभागी हुआ करते थे। कुल मिलाकर गाँव एक बड़े परिवार की तरह हुआ करते थे ।
       किन्तु आज ग्राम्य जीवन बदल गया है। कई गाँव खाली हो चुके हैं। जिन मकानों में कभी रौनक हुआ करती थी उनमें ताले लगे हैं, और अपने बाशिंदों के फिर से लौटने की प्रतीक्षा करते-करते वे खंडहरों में बदल रहे हैं। उत्तराखंड के टिहरी जनपद में कभी सर्वोदयी आंदोलन का केंद्र रहा गाँव बखरोटी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कभी सत्तर-अस्सी परिवारों से आबाद रहने वाले इस गाँव में आज एक भी व्यक्ति नहीं है। लगभग यही हाल अधिकांश पर्वतीय गावों का है।
       ऐसा लगता है कि गांवों की वास्तविक पहचान ही समाप्त हो गई है। ग्राम देवता हमसे रूठ गए हैं। गांवों में बसने वाले असली भारत का अस्तित्व आज संकट में है। आजादी के सात दशकों में विकास की दौड़ में गांवों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया, जिसके कारण हम बहुत कुछ खो चुके हैं । आज समय की सबसे बड़ी मांग यही है कि हम अपने गांवों को बचाने की दिशा में कदम बढ़ाएँ, और वीरान गांवों की रौनक फिर से लौट आए।  
प्रदीप बहुगुणा दर्पण
राज्य समन्वयक
सर्व शिक्षा अभियान, उत्तराखंड
देहरादून

दूरभाष – 9997397038,8077867153

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