नव निशा की
बेला लेकर,
साँझ सलोनी जब
घर आयी।
पूछा मैंने
उससे क्यों तू ,
यह अँधियारा
संग है लायी॥
सुंदर प्रकाश
था धरा पर,
आलोकित थे सब
दिग-दिगंत।
है प्रकाश
विकास का वाहक,
क्यों करती तू
इसका अंत॥
जीवन का नियम
यही है,
उसने हँसकर
मुझे बताया।
यदि प्रकाश के
बाद न आए,
गहन तम की
काली छाया॥
तो तुम कैसे
जान सकोगे,
क्या महत्व
होता प्रकाश का।
यदि विनाश न
हो भू पर,
तो कैसे हो
परिचय विकास का॥
दुख के भय से
सुख की पूजा,
नफरत से
अस्तित्व प्यार का।
इसीलिए तो हे
प्रिय ‘दर्पण’
परिवर्तन नियम
संसार का॥
--- प्रदीप बहुगुणा 'दर्पण'
1 comment:
badhiya hai
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